Tuesday, October 22, 2013

खुद पर ही खुद का न जाने कब कितना सितम होता है,
मिलने का उनसे हजारों तरह का क्या-क्या जतन होता है;
करीब होते हैं तो लब चुप और सिर्फ आंखे ही बोलती हैं,
होंठ थिरकते हैं "दीप" जब मुलाक़ात का वक़्त खतम होता है |


2 comments:

देवदत्त प्रसून said...

आज नेटवर्क की सुविधा उपलब्ध होने पर उपस्थित
हूँ !आप की यह रचना एक अच्छी भावाभिव्यक्ति है !

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...